सुमेल और राकेश की ड्यूटी स्लम एरिया में राशन बाँटने की लगी थी। बस्ती की सारी गलियों में राशन बाँटकर गाड़ी सड़क की ओर मोड़ ही रहे थे कि देखा पीछे से एक औरत बाबूजी, बाबूजी कहती हुई भागती आ रही थी। उसे देख सुमेल ने राकेश को गाड़ी रोकने के लिए कहा, वह औरत पास आई तो सुमेल ने कहा, “बीबी सारा सामान मिल तो गया है, कम से कम हफ़्ता-दस दिन चल जाएगा। अब और क्या चाहिए तुम्हें?”
“नहीं बाबूजी अपने लिए कछु नाहीं माँग रहे।” उसने बाई और इशारा करते हुए बताया, “उधर सीवर पाइप में तीन-चार दिन से आदमी-औरत दो जन आकर बैठा है, संग में तीन ठो बच्चा भी है। खाने को कछु है नहीं, तनिक उधर देख लेते तो…।”
सुमेल ने बाई और नज़र मारी। थोड़ी दूर मेन सीवरेज पाइप के ऊपर एक आदमी बैठा नज़र आया। सुमेल ने गाड़ी में से आटे-दालों के पैकेट उठाए और उस तरफ़ चल पड़ा। पास पहुँच कर देखा सीवरेज पाइप पर गठड़ी की तरह सिमटा हुआ एक मरीयल सा आदमी बैठा है। पाइप के अंदर एक कंकाल नुमा औरत तीन नंग-धडंग बच्चों को अपने संग चिपटा कर बैठी सूनी आँखों से शून्य में ताक रही है। उसके पास जाने पर भी आदमी हिला नहीं, बच्चे अम्मा-अम्मा करते हुए माँ के पीछे छुपने की कोशिश करने लगे तो औरत को जैसे होश सा आया। उसे देखकर वह डर गई, हाथ जोड़ कुछ कहने लगी लेकिन सुमेल पहले ही बोल पड़ा, “बीबी यह कुछ सामान है, आटा-दालें, तेल, रख लो।”
“काहे? हमका नाहीं चइए ई सब, पइसा नहीं है हमरे पास।” पाइप के ऊपर बैठा आदमी नीचे उतर कर कहने लगा।
“अरे पैसा नहीं देना पड़ेगा, सरकार बाँट रही है।लॉकडाउन लग गया है ना”
” ऊ का होत है?”
“अरे भाई, कोरोना फैल गया है पूरी दुनिया में, भारत में भी आ गया है कोरोना। बचाव के लिए सरकार ने लॉकडाउन किया है।” बोलते-बोलते वह रुक गया, उसे लगा उसकी बात उनको समझ नहीं आ रही।
“चलो आप यह सामान रख लो।”
तभी औरत बोल पड़ी, “बाबूजी, दुइ ठू रोटी है तो देइ दयो, बच्चे कल से भूखे हैं, हमरे पास पकाने का कोई साधने नहीं।”
सुमेल ने ध्यान दिया उनके पास दो-चार ख़ाली बर्तन के अलावा एक फटे से थैले में कुछ कपड़े दिखे। शायद यही पूँजी थी उनके पास, ग़रीबी की इससे ज़्यादा दर्दनाक तस्वीर कभी न देखी थी उसने। गले में गोला सा अटक गया, “वाहेगुरु कृपा करो!” बरबस ही उसके हाथ जुड़ गए।
उसे याद आया उसने और राकेश ने रास्ते में दुकान खुली देखकर अपने-अपने घर के लिए ब्रेड, बिस्किट, नमकीन और एक-एक दर्जन फ़्रूटी ख़रीदी थी। वह गाड़ी की तरफ़ भागता हुआ गया और जाकर अपने थैले को उठाकर वापिस जाने लगा।
राकेश ने पीछे से आवाज़ लगाई, “सरदार जी अब किधर?”
वह अभी आया कहकर भागता हुआ वापिस वहीं पहुँचा और थैले से बिस्किट-ब्रेड वग़ैरह निकाल कर उनको देने लगा। ब्रेड को देख तीनों बच्चे उसपर टूट पड़े, बाक़ी सामान की तरफ़ देख उनकी सूखी सी आँखों में जैसे रोशनी जगमगा उठी। उसने सारे थैले को वहीं ख़ाली कर दिया। औरत ने हाथ जोड़कर माथे पर लगाए और उसके सामने झुक गई। आदमी फिर से गठरी हो उसके पैरों पे लोटने लगा, “आप तो साकसात ईसवर का रूप हो बाबूजी, क़सम से माई-बाप दो दिन से एक दाना नहीं गया पेट में।”
“अच्छा आटा- दाल रखो, कल स्टोव-सटूव का इंतज़ाम करता हूँ। वाहेगुरु भली करेगा।” कहकर वह वापिस मुड़ गया। पीछे से छोटे लड़के की चहकती हुई आवाज़ सुनाई दी… “अम्मा फिर कब आएगा इ किरोना ?”
“ओए तेरी मूर्खा, उल्लू दा पठ्ठा ना होवे तां” कहते हुए सुमेल की गर्दन पीछे घूमी साथ ही उसकी दमदार हंसी वातावरण में गूंज उठी। आँखों के कोरों पर लटकते मोती टूटे और लुड़क कर मास्क के नीचे से होते हुए उसकी दाढ़ी में समा गए।
लेखिका – अनीता शरमा (शंघाई, चीन)
नोट – लेखिका की भवनाओं को देखते हुए कहानी के शब्दों से कोई छेड़-छाड़ नहीं की गई है
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