इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता-नवजीत भारद्वाज
जालंधर (प्रदीप वर्मा) Shri Shanidev Hawan: मां बगलामुखी धाम गुलमोहर सिटी नजदीक लम्मा पिंड चौक जालंधर में श्री शनिदेव महाराज जी के निमित्त श्रृंखलाबद्ध सप्ताहिक दिव्य हवन यज्ञ का आयोजन किया गया। सर्व प्रथम ब्राह्मणों द्वारा मुख्य यजमान से विधिवत षोढषोपचार पूजन, नवग्रह पूजन, पंचोपचार पूजन उपरांत सपरिवार हवन-यज्ञ में आहुतियां डलवाई। श्री शनिदेव महाराज जी के निमित्त श्रृंखलाबद्ध सप्ताहिक दिव्य हवन यज्ञ की पूर्ण आहुति उपरांत आए हुए भक्तजनों से अपनी बात कहते हुए सिद्ध मां बगलामुखी धाम के प्रेरक प्रवक्ता नवजीत भारद्वाज जी ने प्रभु भक्तों को सिखों के पाँचवे गुरु अर्जुन देव जी के शहीदी पर्व को याद करते हुए उनको नमन किया और कहा कि गुरु अर्जुन देव जी हिंद की चादर और उनके बलिदान और त्याग के बारे में ब्याख्यान किया।
नवजीत भारद्वाज जी ने एक सिख इतिहास में से एक बेहतरीन प्रसंग सुनाते हुए प्रभु भक्तों को निहाल करते हुए कहा कि सिख समाज के पाँचवें गुरु अर्जुनदेवजी बचपन से ही धार्मिक कार्यों और सत्संगियों की सेवा में रुचि लेते थे । गुरु अर्जुनदेव जी अपने पिता गुरु रामदासजी से पिता के नाते उतना लगाव नहीं रखते थे, जितना गुरु के नाते रखते थे । एक भी क्षण के लिए वे अपने गुरु रामदास जी से दूर होना नहीं चाहते थे । गुरु रामदास जी ने अपने पुत्र अर्जुनदेव में सेवा, गुरुचरणों में समर्पण, अधिकार नहीं कर्तव्य में रुचि, आज्ञापालन में निष्ठा आदि सद्गुणों को देख के यह निश्चय कर लिया था कि ‘गुरुगद्दी का अधिकारी तो गुरु अर्जुनदेव जी ही हो सकते है।’ इसलिए उन्होंने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय किया।
एक बार गुरु रामदास जी के पास उनके एक संबंधी का संदेशा आया कि ‘मेरे पुत्र का विवाह है । आप इस अवसर पर लाहौर अवश्य पधारें ।’ गुरु रामदास जी ने अपने बड़े बेटे पिरथीचंद को वहाँ जाने के लिए कहा तो पिरथीचंद ने अपने पीछे कहीं छोटे भाई अर्जुनदेव को गुरुगद्दी न सौंप दी जाय इस भय से मना कर दिया । तब गुरुजी ने दूसरे बेटे बाबा महादेव जी को वहाँ जाने के लिए कहा तो उन्होंने भी मना कर दिया क्योंकि उन्हें संसारी बातों में रुचि नहीं थी । तब गुरु रामदास जी ने अर्जुनदेव जी से कहा ‘‘बेटा ! तुम लाहौर जाओ और जब तक मैं न बुलाऊँ, तुम वहीं रहना।’’ गुरु अर्जुनदेव जी गुरु आज्ञा पाते ही लाहौर निकल पड़े । विवाह-कार्य सम्पन्न हुआ। 3-4 महीने हो गये लेकिन अभी तक गुरुजी की ओर से न कोई पत्र आया न ही बुलावा। उनको 4 महीने का बिछुडऩा 4 युगों के समान प्रतीत होने लगा । गुरुदेव के बिना एक-एक पल काटना मुश्किल हो गया तब गुरु अर्जुनदेव जी ने गुरु रामदास जी को पत्र लिखा
मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई ।
बिलप करे चात्रिक की निआई ।..
‘हे गुरुजी ! आपके दर्शन के लिए मेरा मन व्याकुल है और चातक की तरह विलाप करता है । हे संतजनों के प्यारे ! आपके दर्शन के बिना प्यास नहीं
बुझती।’ यह पत्र पिरथीचंद के हाथ लगा । उन्होंने उसे गुरुजी तक इस डर से नहीं पहुँचने दिया कि कहीं गुरुजी उनको बुला न लें । 10-12 दिन हुए, गुरु जी की ओर से कोई पत्र न आया। गुरु अर्जुनदेवजी ने दूसरा पत्र लिखा
तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी ।…
‘आपका मुख शोभनीय है और वाणी सहज अर्थात् शांतिरूप है । हे सारंगपाणि! आपके दर्शन किये चिरकाल हो गया है । हे मेरे प्रभु ! मेरे मित्र ! सज्जन ! वह स्थान धन्य है जहाँ आप बस रहे हैं !’ यह पत्र भी पिरथीचंद को मिल गया, उन्होंने वह पत्र भी छुपा लिया । इधर अर्जुनदेव जी की व्याकुलता बढ़ती गयी । उन्होंने कुछ समय पश्चात् तीसरा पत्र लिखकर जिस सिख के हाथ भेजा, उससे कहा कि वह उसे गुरुजी के सिवा किसी को न दे । उसमें लिखा था
इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता …
‘एक घड़ी दर्शन न होने पर तो समय कलियुग-सा लगता है लेकिन हे प्यारे! अब आपको कब मिलूँगा ? हे गुरु ! आपका दरबार देखे बिना मुझे नींद नहीं आती और न ही मेरी रात्रि बीतती है। मैं तन, मन और वाणी से उस गुरु पर बलिहारी जाता हूँ, जिसका दरबार सच्चा है ।’
सिख ने वह पत्र सीधा गुरु रामदास जी को दिया । गुरुजी ने अर्जुनदेव का पत्र पड़ा, उनके आँसू बह निकले। गुरु अर्जुनदेव जी का त्याग एवं समर्पण देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए । पत्र पर तीन का अंक देखकर सिख से पूछा, ‘‘दूसरे दो पत्र कहाँ हैं?’’ सिख ने उत्तर दिया ‘‘मैंने वे पत्र तो पिरथीचंद को दिये थे ।’’
गुरु जी ने पिरथीचंद को बुलाकर पूछा तो उन्होंने साफ मना कर दिया । अंतर्यामी गुरुजी ने अपने एक सेवक को कहा, ‘‘जाओ, पिरथीचंद के कोट की जेब में दोनों पत्र पड़े हैं, उनको ले आओ।’’ सिख जाकर पत्र ले आया ।
पिरथीचंद शर्माये । उन्होंने कहा, ‘‘पिताजी ! वे पत्र मेरे द्वारा लिखे गये हैं ।’’
गुरुजी ने अर्जुनदेवजी को बुलवा लिया । फिर दोनों से कहा ‘‘इस वाणी की तीन सीढिय़ाँ (पंक्तियाँ) हैं; जो इसकी चौथी सीढ़ी का उच्चारण करेगा, उसी की पहली तीनों सीढिय़ाँ समझी जायेंगी ।’’
पिरथीचंद ने तो झूठ बोला था, उनसे तो वाणी उच्चारित नहीं हो सकी । अर्जुनदेव जी ने चौथी सीढ़ी का उच्चारण करते हुए कहा..
भागु होआ गुरि संतु मिलाइआ ।
प्रभु अबिनासी घर महि पाइआ ।…
‘जब पुण्यों का प्रभाव हुआ, सौभाग्य हुआ तब संतों ने आप ही गुरु से मिलाप करा दिया और अब (आपकी कृपा से) अविनाशी प्रभु अंत:करणरूपी घर में प्राप्त हुआ है । अब प्रार्थना है कि आपकी सेवा करते हुए पलभर भी न बिछडूँ । मैं आपका दास हूँ ।’
गुरु रामदासजी बहुत प्रसन्न हुए और गुरु अर्जुनदेव जी को गले लगाकर बोले- ‘‘बस बेटा ! तुम ही इस गुरु की पदवी के योग्य हो ।’’ गुरु अर्जुनदेव जी की गुरु के प्रति तड़प जल्दी ही उन्हें गुरु के निकट ले आयी ।
जब बच्चा झूठमूठ में रोता है तो माँ ध्यान न भी दे लेकिन जब वह माँ के लिए सचमुच तड़पता है तो माँ उससे दूर नहीं रह पाती, तो हजारों माताओं की करुणा जिनके हृदय में होती है, ऐसे सद्गुरु के लिए शिष्य के हृदय में सच्ची तड़प जग जाये तो वे भला दूर कैसे रह सकते हैं।
Shri Shanidev Hawan : इस अवसर पर अरविंदर पाल सिंह , पूनम प्रभाकर, अमरेंद्र कुमार शर्मा, राकेश प्रभाकर, समीर कपूर, रोहित भाटिया, बावा जोशी, बावा खन्ना, मुकेश गुप्ता , अजीत कुमार, संजीव शर्मा, राजेश महाजन, मनीष कुमार, संजय, सोनू, नवदीप, उदय, अमन, सुक्खा अमनदीप, अमरजीत सिंह, अवतार सैनी, गौरी केतन शर्मा,रिंकू सैनी, सुनील जग्गी, अमरेंद्र कुमार शर्मा, प्रवीण,राजू, वरुण,दीलीप,लवली, लक्की, रोहित, विशाल , अशोक शर्मा, नवीन कुमार, अश्विनी शर्मा,रवि भल्ला, जगदीश, पप्पू ठाकुर, ठाकुर बलदेव सिंह ,सुक्खा, अमरजीत , प्रिंस , अमनदीप शर्मा, त्रेहन ,कन्हैया, सहित भारी संख्या में भक्तजन मौजूद थे।
हवन-यज्ञ उपरांत विशाल लंगर भंडारे का आयोजन किया गया।
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