
नई दिल्ली (वीकैंड रिपोर्ट)- Story of Lord Krishna : भगवान श्रीकृष्ण का जीवन आज भी आस्था, ज्ञान, कर्तव्य और संघर्ष का अप्रतिम उदाहरण माना जाता है। महाभारत, पुराणों और कई प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कथाओं के अनुसार श्रीकृष्ण का जन्म लगभग 5,252 वर्ष पूर्व, 18 जुलाई 3228 ईसा पूर्व, श्रावण मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को, रोहिणी नक्षत्र और बुधवार की अर्धरात्रि में हुआ है। उनका जीवन महज एक देवत्व कथा नहीं, बल्कि ऐसा मानवीय सफर है जिसमें जन्म से लेकर अंतिम प्रहर तक अनगिनत चुनौतियाँ, संघर्ष और कर्तव्य निर्वहन की कहानियाँ मिलती हैं।
जन्म, परिवार और प्रारंभिक जीवन

श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में माता देवकी और पिता वसुदेव के घर हुआ। जन्म के तुरंत बाद वे गोकुल पहुँचे, जहाँ उनका पालन-पोषण नंद बाबा और यशोदा ने किया। कृष्ण के बड़े भाई बलराम तथा बहन सुभद्रा ने भी उनके जीवन की कथा में महत्वपूर्ण स्थान पाया। कृष्ण का बचपन रंग-चंचलता, ग्वाल-बालों के साथ केल-क्रीड़ा और अत्याचारियों संघर्ष से भरा रहा। कंस द्वारा बार-बार रचे गए षड्यंत्र, पुतना, शेषिका, बकासुर, अग्निकांड जैसे अनेक खतरों का सामना बालक कृष्ण ने किया। गोकुल में सूखा, वन्य जीवों का खतरा और बार-बार हो रही घटनाओं के चलते परिवार को वृंदावन जाना पड़ा। बालक कृष्ण का आकर्षण, उनका माखन-चोरी वाला रूप और प्रेम की सच्ची पराकाष्ठा ये सब वृंदावन को आज भी श्रीकृष्ण के प्रेम और भक्ति का केंद्र बनाते हैं। 10 वर्ष 8 माह की आयु में उन्होंने मथुरा जाकर अत्याचारी कंस का वध किया और अपने माता-पिता को मुक्त कराया।
Story of Lord Krishna : द्वारका की स्थापना और शिक्षण

कृष्ण का जीवन निरंतर संघर्षों से भरा था। कालयवन जैसे आक्रमणकारियों से बचाने के लिए उन्होंने यदुवंश को सुरक्षित स्थान द्वारका में बसाया। बाद में उन्होंने उज्जैन जाकर गुरु सान्दीपनि से शिक्षा प्राप्त की और गुरुदक्षिणा में अफ्रीकी समुद्री डाकुओं से लड़कर उनके पुत्र पुनर्दत्त को वापस लाया।
महाभारत और धर्मस्थापन का संकल्प

कृष्ण ने पांडवों के जीवन में हर महत्वपूर्ण मोड़ पर मार्गदर्शक की भूमिका निभाई —
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लाक्षागृह से बचाना
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द्रौपदी की अस्मिता की रक्षा
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राज्य की स्थापना में सहयोग
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वनवास के दौरान साथ निभाना
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कुरुक्षेत्र में सारथी बनकर धर्म युद्ध को दिशा देना
कुरुक्षेत्र का युद्ध 3139 ईसा पूर्व में हुआ माना जाता है। इसी युद्ध में सूर्यग्रह, भीष्म का शर–शय्या पर पड़े रहना और अंततः पांडवों की विजय जैसे प्रसंग कृष्ण के नेतृत्व की मिसाल बने। महाभारत के 36 वर्ष बाद, 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व, 125 वर्ष, 8 माह, 7 दिन की आयु में कृष्ण ने देह त्यागी।
कृष्ण: उपाधियाँ, स्वरूप और भक्ति केंद्र

भारत के विभिन्न राज्यों में कृष्ण अलग-अलग स्वरूपों में पूजे जाते हैं—
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कन्हैया – मथुरा
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जगन्नाथ – ओडिशा
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विठोबा – महाराष्ट्र
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श्रीनाथजी – राजस्थान
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द्वारकाधीश, रंछोड़ – गुजरात
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कृष्ण – उडुपी, कर्नाटक
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गुरुवायूरप्पन – केरल
Story of Lord Krishna : संघर्षों से घिरा जीवन, फिर भी शांति का संदेश

श्रीकृष्ण का जीवन किसी चमत्कारी कथा नहीं, बल्कि कर्तव्य, बुद्धिमत्ता और अद्भुत धैर्य का प्रतीक है।
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उन्हें जन्म से ही खतरे घेरते रहे।
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दत्तक पालन, रंग-भेद का उपहास, निरंतर युद्ध—सबका सामना किया।
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अपना राज्य डूबता देखा।
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अंतिम समय में भी एक शिकारी के तीर से देह त्यागी।
फिर भी वे सदैव निष्काम भाव, कर्तव्य और धर्म के पक्षधर रहे।
कृष्ण का संदेश आज भी प्रासंगिक

जीवन में कितनी भी चुनौतियाँ क्यों न हों, कर्तव्य और संतुलन बनाए रखना — यही गीता का सार है, और यही उन्होंने अपने जीवन से सिद्ध किया। उनका जीवन यह सिखाता है कि ज्ञान, विवेक, साहस और प्रेम से हर परिस्थिति को बदला जा सकता है।
जय श्री कृष्ण।
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